ईशा कोप्पिकर का दशहरा: "मुझे खुद ही अपनी दुर्गा बनना पड़ा" – चार पीढ़ियों की वारियर महिलाओं का उत्सव

Update: 2025-10-02 11:51 GMT

ईशा कोप्पिकर के लिए दशहरा हमेशा से एक बेहद निजी और भावनात्मक त्योहार रहा है। यह सिर्फ अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक नहीं है, बल्कि उनके जीवन में मौजूद चार पीढ़ियों की असाधारण महिलाओं की ताकत का भी उत्सव है।


इस कहानी की शुरुआत होती है उनकी नानी से – वो स्त्री जिन्होंने ईशा की नींव रखी। बचपन में ईशा हर मौके पर अपनी नानी के साथ रहना चाहती थीं। उनके साथ बिताया हर लम्हा उनके लिए अनमोल था, जिसने उन्हें सिखाया कि जिंदगी में चाहे कुछ भी हो, हमेशा गरिमा, आत्मसम्मान और मजबूती के साथ जीना चाहिए।


वह इस असाधारण महिला को अपना आदर्श मानती थीं, जितना हो सके उनके करीब रहती थीं, न केवल उनकी कहानियों को बल्कि उनकी आत्मा को भी आत्मसात करती थीं। ईशा कहती हैं, "मेरी नानी मेरी पहली गुरु थीं, जिन्होंने मुझे सिखाया कि असली मजबूती क्या होती है। आज मेरे अंदर जो नैतिक मूल्य, सिद्धांत और सोच है, वो उनकी अडिग विचारधारा का ही प्रतिबिंब है।"

ईशा का शांत लेकिन अपने विश्वासों पर अडिग रहने की क्षमता, ये सब उन्होंने उन्हीं बचपन के दिनों में अपनी नानी के सान्निध्य में बिताए गए उन शुरुआती वर्षों से ही उन्हें मिली थी।


फिर आईं उनकी माँ – एक और वारियर महिला, जिन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाया। ईशा कहती हैं, "मेरी माँ ने मुझे सिखाया कि असली सहन-शक्ति क्या होती है। उन्होंने जीवन की कठिनाइयों का सामना जिस गरिमा और संकल्प के साथ किया, उसने मुझे कभी ये शक नहीं होने दिया कि एक औरत क्या कुछ कर सकती है।"

इन शुरुआती सीखों ने ही ईशा को वो नींव दी, जिस पर उन्होंने अपनी जिंदगी और करियर दोनों खड़े किए।


ईशा ने इस विरासत को अपने जीवन में पूरी शिद्दत से निभाया – हर उस निर्णय में, जिसमें उन्होंने एक योद्धा महिला की तरह खुद को साबित किया। चाहे फिल्मों में ऐसे किरदार निभाना हो जो मजबूत और अडिग हों, या फिर निजी जीवन की जटिलताओं का सामना करना हो, ईशा ने हर लड़ाई अकेले लड़ी।

कई बार उन्होंने ऐसे फैसले लिए जो आसान नहीं थे – लेकिन उन्होंने अपने दम पर जीवन को दोबारा खड़ा किया। "मैंने महसूस किया कि मुझे खुद ही अपनी दुर्गा बनना होगा," ईशा कहती हैं। "कई बार हमारी लड़ाइयाँ चुपचाप होती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वो कम महत्वपूर्ण हैं।"


आज जब ईशा खुद एक माँ है – उनकी बेटी रिआना के साथ, तो दशहरा उनके लिए और भी गहरा हो गया है। अब यह सिर्फ़ अपनी नानी और माँ से विरासत में मिली शक्ति का सम्मान करने के बारे में नहीं है, बल्कि उसी योद्धा भावना को चौथी पीढ़ी तक पहुँचाने के बारे में है। ईशा कहती हैं, "जब मैं अपनी बेटी को देखती हूँ, तो मुझे भविष्य दिखाई देता है। मैं चाहती हूँ कि वह यह जानकर बड़ी हो कि वह सशक्त महिलाओं के वंश से है, कि उसकी रगों में उसकी परदादी, नानी और माँ की शक्ति प्रवाहित होती है।"


इस दशहरे पर, जब ईशा रिआना के साथ उत्सव मना रही हैं, तो वह सिर्फ़ एक परंपरा का पालन नहीं मना रही हैं, बल्कि चार पीढ़ियों से चली आ रही शक्ति, साहस और अटूट स्त्री शक्ति की विरासत का सम्मान कर रही हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि आने वाली पीढ़ी भी उसी गर्व और आत्मबल के साथ कल को आकार देने वाली महिलाओं में योद्धा भावना निरंतर फलती-फूलती रहे।

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