एक दीवाने की दीवानियत’: पुराना ख्याल, नया चेहरा — मगर वही परेशान करने वाली सोच

एक दीवाने की दीवानियत’: पुराना ख्याल, नया चेहरा — मगर वही परेशान करने वाली सोच
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हर्षवर्धन राणे और सोनम बाजवा की रोमांटिक ड्रामा एक दीवाने की दीवानियत ने रिलीज़ के सातवें दिन भी बॉक्स ऑफिस पर अपनी पकड़ बनाए रखी है। शुरुआती दिनों से ही दर्शकों का अच्छा रिस्पॉन्स मिलने के बाद फिल्म अब 50 करोड़ रुपये के क्लब में प्रवेश करने की ओर बढ़ रही है।

2016 में हर्षवर्धन राणे की फिल्म सनम तेरी कसम आई थी — एक दुखभरी प्रेम कहानी, जो बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई। लगभग नौ साल बाद, 2025 में उस दौर के रोमांटिक सिनेमा की हवा को भांपते हुए इसे दोबारा रिलीज़ किया गया, और इस बार दर्शकों ने इसे सराहा भी। तभी चर्चा उठी कि इसका सीक्वल बनना चाहिए। हालांकि सीक्वल तो नहीं बना, लेकिन उसी अंदाज़ की एक नई फिल्म आ गई — एक दीवाने की दीवानियत।

लेकिन इस फिल्म को देखते हुए ऐसा लगता है मानो इसे किसी पुराने ज़माने में बनाया गया हो और अब दोबारा दिखाया जा रहा हो। 2025 के दौर में ऐसी सोच और ऐसा ट्रीटमेंट देखकर हैरानी होती है। यह फिल्म सिर्फ़ पुरानी नहीं लगती — यह इतनी पीछे है कि इसे "क्रिंज" कहना भी कम होगा। एक ऐसी कहानी जो प्रेम के नाम पर ज़बरदस्ती को सही ठहराती है, लड़की की ‘ना’ को ‘हां’ में बदलने की कोशिश करती है, और अपने नायक की हर ग़लती को भावनात्मक तर्कों से ढकने का प्रयास करती है।



कहानी बेहद सीधी है — एक अमीर लड़का पहली नज़र में एक फिल्म एक्ट्रेस से मोहब्बत कर बैठता है। लड़की उसे साफ़ मना कर देती है, लेकिन वह पीछा नहीं छोड़ता। बार-बार उसे और उसके परिवार को परेशान करता है, ताकि वह शादी के लिए राज़ी हो जाए। बीच-बीच में आँसू, स्लो-मोशन वॉक, शेर-ओ-शायरी वाले संवाद और रीमिक्स गानों का तड़का — यही फिल्म की रेसिपी है।

नायक का किरदार एक ऐसे आदमी का है जो ‘ना’ सुनना नहीं जानता। अपने अधिकार के भ्रम में वह लड़की के करियर और ज़िंदगी दोनों को तबाह कर देता है — उसके प्रोजेक्ट रुकवा देता है, परिवार पर दबाव डालता है और अंत में खुद को नुकसान पहुँचाकर सहानुभूति बटोरने की कोशिश करता है। फिल्म उसे एक ‘पीड़ित लड़का’ दिखाने की कोशिश करती है — क्योंकि उसका बचपन मुश्किल था, मां नहीं थी, और पिता सख्त थे। पर सवाल यह है कि क्या यह किसी और की ज़िंदगी बर्बाद करने का कारण बन सकता है?

फिल्म के निर्माता शायद यह समझते हैं कि ‘टॉक्सिक लव स्टोरी’ अब भी बिकती है। उन्होंने वही फॉर्मूला अपनाया जिसे कबीर सिंह, तेरे नाम या रांझणा जैसी फिल्मों के लिए आलोचना झेलनी पड़ी थी। लेकिन फर्क यह है कि यहां कहानी और ज़्यादा सतही और असंवेदनशील लगती है। ऐसा लगता है मानो फिल्म का मकसद एक अच्छी कहानी कहना नहीं, बल्कि सिर्फ़ बॉक्स ऑफिस कमाई करना था। हर्षवर्धन राणे को शायद इसलिए चुना गया क्योंकि दर्शक उन्हें पहले भी इसी तरह के किरदार में देख चुके हैं।

फिल्म के प्री-इंटरवल सीक्वेंस में लड़की इस सब से तंग आकर एक ऐसा कदम उठाती है जो बेहद असहज कर देने वाला है — एक ऐसा पल जिसे देखकर आप सिर्फ़ यही सोचते हैं कि “बस, अब खत्म हो जाए।”

क्लाइमेक्स में नायक को अचानक ‘अपनी गलती का एहसास’ हो जाता है और वह महिलाओं के प्रति सम्मान, सहमति (कंसेंट) और रिश्तों पर भाषण देने लगता है। लेकिन यह बदलाव इतना बनावटी लगता है कि आप विश्वास ही नहीं कर पाते।

आज के दौर में, जहाँ महिलाओं के खिलाफ घटनाएँ आम हैं, ऐसी फिल्में जिम्मेदारी से ज्यादा लापरवाही दिखाती हैं। एक दीवाने की दीवानियत न सिर्फ़ अपने विचारों में पिछड़ी है, बल्कि मनोरंजन के स्तर पर भी कुछ नया पेश नहीं करती।

निर्देशन की बात करें तो फिल्म को मिलाप जावेरी ने बनाया है — वही निर्देशक जिन्होंने सत्यमेव जयते 2 बनाई थी और अब मस्ती 4 पर काम कर रहे हैं। सोनम बाजवा ने नायिका की भूमिका निभाई है, और उनकी काल्पनिक फिल्म दिलबरा के पोस्टर में दिखने वाले “रितेश अब्राहम” और “जॉन देशमुख” जैसे नाम मज़ाकिया अंदाज़ में फिल्म के अंदर पेश किए गए हैं। सच कहा जाए, तो अगर वे निर्देशक वाकई होते, तो शायद यह फिल्म कुछ बेहतर बन सकती थी।

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